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लालच

भरी दोपहरी में तपती है धूप- सी जिन्दगी,
अनवरत कर रहा है मौसम प्रहार,
फिर पिस रहा है इंसान और मोम सी पिघलती रहीं हैं उसकी भावनाएं,
माना इस सबके लिए वह खुद ही है जिम्मेदार,
अपने अतृप्त लालच के तहत,
अपने अंदर अपना स्वयं
और प्रकृति की सुन्दरता को इंसान,
तूने स्वयं ही बेमानी दण्ड दिया
और लेशमात्र भी
एहसास नहीं है तुझे,
पल की भूल सदियां भुगतती हैं ,
यहां तो आने वाली नस्लें भी,
घिर गयीं हैं तेरे इस लालच के तले,
तन और मन दोनों हो रहें हैं घायल,
अपने मन के लालच से तूने खोया अपना मन,
और सब कुछ पाने की चाह से तू खो रहा है,
निरंतर सब कुछ बाह्य और अंतर्मन,
हर ओर सब शुष्क है
मौसम हो या हो तन,
बेतहाशा दौड़ रही है उम्र की गति,
नहीं रहा कुछ भी पावन,
ना ईश्वर की मूरत, ना ही पीत वसन,
हे मानव तू तो स्वयं ही कर रहा है,
स्वयं का संहार,
नफ़रत तूने बोयी है
और देख रहा है,
प्यार के सपनों का संसार
पर तेरे इसी लालच के तले
प्रकृति कर रही है अनवरत प्रहार
मिट रहा है धीरे-धीरे
इंसान और इंसानियत
या उसकी बनाई कृतियां
सजीव और निर्जीव
इंसान तूने स्वयं ही खोया है अपना मान
अपने लालच के तले,
फिर भी काश! ये प्रकृति
तुझे एक बार और अवसर दे
तेरा खोया हुआ पाने का
तेरा स्वयं और तेरा मान।।

One thought on “लालच

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