मैं स्वयं ही,
अपनी पहचान हूं।
पर ये भूल जाती हूं,
जब दुनिया के रंगमंच पर,
अपने अलग-अलग,
किरदार निभाती हूं,
कभी बेटी, कभी बहन,
कभी पत्नी,
और फिर मां बन जाती हूं,
लेकिन जब मेरे अपने,
मुझसे बेखबर,
स्वयं में ही व्यस्त हो जाते हैं,
आहत मन विचलित हो जाता है,
तब मुझे याद आता है,
मेरा भी एक अस्तित्व है,
मैं स्वयं ही,
अपनी पहचान हूं ।
तब मैं ढूंढ पाती हूं,
अपनी उपलब्धियां,
अपने वो गुण,
जो सबसे अलग हैं,
मेरा अंतर्मन,
जो मेरा,
मेरे स्वयं से पहचान कराता है।
मैं कोमल हृदय से,
अपना मर्म पहचानती हूं,
विस्मृत हो आते हैं,
मेरे खोए शौक,
कभी मैं भी पंछी बन,
उन्मुक्त आकाश में उड़ती थी,
ये याद कर फिर से,
उड़ान भरने को उत्सुक हो जाती हूं,
अपनी पहचान पाने को,
आतुर अधीर हो जाती हूं,
मन में लिए विश्वास,
मैं स्वयं ही अपनी पहचान हूं।।
इस दुनिया में सबसे मुशकिल है खुद से खुद की पहचान करना , इस कविता के माध्यम से अपने हम सबकी पहचान करवा दी, इसके माध्यम से जो लोग खुद को भूल गए थे वे फिर से खुद को पा लेंगे ।
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इस दुनिया में सबसे मुश्किल है खुद से खुद की पहचान करना, इस कविता के माध्यम से आपने हम सबकी आंखे खोल खुद से खुद की पहचान करवा दी ।
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