वक्त का तकाज़ा था,
काश रुक जाता ये एक पल,
जब हमारी नज़र तुम पर ठहर गयी थी।
धड़कन बेतहाशा दौड़ रही थी,
आकांक्षाओं की चरम सीमा थी,
मन का चंवर डोल रहा था,
तन पर छायी थी महक मादकता की,
बस, सांसें ही नहीं रुकीं ।
फिर,
चला दौर मोहब्बत का,
शोर था चिड़ियों के चहचहाने का,
मन मयूर के गाने का,
इंतज़ार की रातों के बीत जाने का,
आस और सांस के मिल जाने का,
ये दौर कुछ लम्बा था।
फिर ठहर गये पल,
वक्त चलता रहा,
लम्हों की खता सदियों
के भुगतने की बारी थी,
हम वही थे,
मौसम समां और सांसे भी वही थीं,
बदला क्या था ?
जो वक्त ठहरा जान पड़ता था,
धीरे-धीरे चल रही थी
जीवन की गति,
यादों के झरोखों में झांक कर,
बीती यादों के सहारे,
सांसे समेट कर,
फिर इंतज़ार कर रहे हैं,
वक्त के बीतकर,
रुक जाने का,
सुकून की तलाश में।।
‘इन्दु तोमर’