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चार दिन की ज़िंदगी

क्या क्या कर जाना है
बहुत लम्बा और कठिन है डगर
मगर फिर भी बहुत दूर तक जाना है

क्योँ रोते हो अपने दुखों पर
देखो दुनिया में कहाँ कोई बे-गम है,
घर से बाहर तो निकलो
यहाँ सब बेदम है ।

नमक की लिए पोटली
जले की तलाश में
सब घूम रहे है यहाँ,
मरहम बन कर तुम
किसी का घाव को भर दो ,

सब पा लोगे जिंदगी में
जान लो तुम,
न खुद रोना
न किसी को रुलाना है

रास्ते- मंजिल , सफर -हमसफर
सब मिल जायेंगे ऐ दोस्त
बस ठान लो कि
हो कैसा भी समय
बस हँसना और सबको हँसना है ।

चार ही दिन की जिंदगी में
क्या क्या कर जाना है
बहुत लम्बा और कठिन है डगर
मगर फिर भी बहुत दूर तक जाना है

मेरी मां

मां आप ममतामई ईश्वर की मूरत हैं
अनोखी हैं आप
समाये हैं आपमें सब गुण
मैं प्रतिमूर्ति हूं आपकी
पर आप सी ना बन पायी
वो रातभर मेरे दर्द से जागना
मेरी परेशानी में मेरी ढाल बन जाना
आज भी कोशिश करती हूं आपसा होना
हिम्मत देकर मुझे बहादुर बनाना
हर बार गिरने पर कपड़े झाड़कर
मुझे फिर भागने के लिये तैयार करना
मेरे हर गुण को पहचान ना
और फिर हथियार बनाकर
मुझे सिखाना
मां आज भी चाहती हूं आपसा बनना
विनम्रता , विपरीत परिस्थितियों में भी
हिम्मत की द्योतक हैं आप
मुस्कान आपका मजबूत अस्त्र है
सादगी आपकी पहचान
आज भी जमाने के रंगों से
अनछूई हैं आप
बहुत चाहकर भी आपसा होना
आप ही ना बन पाई मैं।
आज भी मेरी बेटी की
नानी नहीं दोस्त हैं आप
अपने गुणों की बेल
समाहित कर रहीं हैं आप
प्यार की मूरत ममतामई ईश्वर की मूरत हैं आप

( मेरी प्यारी मां‌ के लिये MOTHER’S DAY पर मेरी कलम से)

आत्ममंथन

कभी शब्दों में तलाश न करना वजूद मेरा….दोस्तों,
मैं उतना लिख बोल नहीं पाती, जितना महसूस करती हूँ!
कभी कभी सच को सच और झूठ को झूठ कह देती हूं,
फिर दूसरे ही पल सम्हल जाती हूं और मुस्कराती हूं,
यहां कोई सच सुनना नहीं चाहता,
सबकी अपनी झूठ सच की दुनिया है, स्वयं को समझाती हूं!
एक चेहरे पर अनेक चेहरे चढ़ाकर जीते हैं,
सबके अपने दर्द और दर्द-ए-दिल हैं,
आत्ममंथन करती हूं, एक नये दृढ़ विश्वास से भर जाती हूं!
हर बार कुछ नया सीख जाती हूं……दोस्तों,
उतना लिख बोल नहीं पाती, जितना महसूस करती हूं!

कुछ कहना था…..दोस्तों

मैं कविता

मैं कविता
मैं अंजान हूं,
मैं नादान हूं,
और किसी की पहचान हूं,
कलम द्वारा आई
कुछ शब्दों की डाल हूं

कभी रेंग-रेंग चले कलम
कभी कभी दौड़ी जाए,
कुछ शब्दों से बने डाल
और कुछ शब्दों से जाल बुना जाए

तीन उंगली का सहारा
सच्चे दिल सोच द्वारा,
कलम रखती है स्याही
शब्दों के द्वारा ।

पढ़ना-पढ़ाना-पढ़ाई
स्याही के अक्षर ढाई,
जीवन छिपा है इन्हीं शब्दों में
कहते रहे यही मेरे सांईं ।

मैं कविता,
मैं मिलती हूं
कुछ पन्नों
कुछ किताबों में,
कुछ स्याही के रंगों में,
जीवन का हिस्सा हूं
जीवन के रंगों में ।

बाल-लड़क-होश
जवानी का आधार
इन्हीं शब्दों से बंधा जीवन का तार,
विचार-भावना-अंतिम वर्ष
कहना चाहूं शब्द हजारों हजार ।

मैं कविता

जीवन

वक्त का तकाज़ा था,
काश रुक जाता ये एक पल,
जब हमारी नज़र तुम पर ठहर गयी थी।
धड़कन बेतहाशा दौड़ रही थी,
आकांक्षाओं की चरम सीमा थी,
मन का चंवर डोल रहा था,
तन पर छायी थी महक मादकता की,
बस, सांसें ही नहीं रुकीं ।
फिर,
चला दौर मोहब्बत का,
शोर था चिड़ियों के चहचहाने का,
मन मयूर के गाने का,
इंतज़ार की रातों के बीत जाने का,
आस और सांस के मिल जाने का,
ये दौर कुछ लम्बा था।
फिर ठहर गये पल,
वक्त चलता रहा,
लम्हों की खता सदियों
के भुगतने की बारी थी,
हम वही थे,
मौसम समां और सांसे भी वही थीं,
बदला क्या था ?
जो वक्त ठहरा जान पड़ता था,
धीरे-धीरे चल रही थी
जीवन की गति,
यादों के झरोखों में झांक कर,
बीती यादों के सहारे,
सांसे समेट कर,
फिर इंतज़ार कर रहे हैं,
वक्त के बीतकर,
रुक जाने का,
सुकून की तलाश में।।

‘इन्दु तोमर’